महाभारत का युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था। भीम ने दुर्योधन को अधमरा कर दिया था। सभी पांडव घायल दुर्योधन को कीचड़ भरे गड्ढे में छोड़कर जा चुके थे।
दुर्योधन का अभिन्न मित्र अश्वथामा वहां पहुंचा। अश्वथामा पांडव और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। अपने मित्र दुर्योधन को मरता देखकर वह बहुत दुखी हुआ। उसने दुर्योधन से कहा, ‘मित्र, बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?’
दुर्योधन बोला, ‘मेरे सभी भाई मारे गए, मित्र मारे गए, रिश्तेदार भी जीवित नहीं बचे, लेकिन मरते-मरते मुझे ये अफसोस है कि पांडव में से एक भी भाई नहीं मरा। कोई एक भी मर जाता तो मुझे संतोष मिलता।’
अश्वथामा ने दुर्योधन को वचन दिया, ‘मैं किसी एक पांडव को जरूर मार दूंगा।’
अश्वथामा ने विचार किया कि रात में जब पांडव अपने शिविर में सो रहे होंगे तब धोखे से उनका वध कर दूंगा। श्रीकृष्ण अश्वथामा की ये इच्छा जान गए। तब उन्होंने पांचों पांडव भाइयों को उनके शिविर से हटा लिया। पांचों पांडवों से द्रौपदी को पांच पुत्र हुए थे। अश्वथामा ने रात में उन पांचों पुत्रों को मार डाला।
पुत्रों के मरने के बाद पांडवों ने अश्वथामा को पकड़ लिया और उसे द्रौपदी के सामने लाया गया। पांच पुत्रों का वध करने वाले अश्वथामा को देखकर द्रौपदी ने कहा, ‘अरे ये तो हमारे गुरु का बेटा है। अगर हम इसका वध करेंगे तो गुरु माता को वही दुख होगा जो मुझे हुआ है। इसे कोई उचित दंड देकर जीवित छोड़ देना चाहिए।’
सीख – इस कहानी में द्रौपदी ने हमें संदेश दिया है कि कभी-कभी क्रोध में दंड देने से अच्छा है कि अपराधी को माफ कर दिया जाए। द्रौपदी के निर्णय के पीछे श्रीकृष्ण की भी सहमति थी। किसी को क्षमा करना बड़े पराक्रम का काम है। ऐसा हो सकता है कि बड़े अपराधी को क्षमा करना पड़े, उसके पीछे उसके सुधरने की संभावनाएं होती हैं।