उपराष्ट्रपति चुनावों में एनडीए के उम्मीदवार की जीत पहले से तय थी लेकिन इसके बावजूद विपक्ष ने अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा। वजह साफ थी कि वह विपक्ष के तौर पर लड़ते हुए दिखना चाहता था।

उपराष्ट्रपति चुनावों में एनडीए के उम्मीदवार की जीत पहले से तय थी लेकिन इसके बावजूद विपक्ष ने अपना प्रत्याशी मैदान में उतारा। वजह साफ थी कि वह विपक्ष के तौर पर लड़ते हुए दिखना चाहता था। लेकिन वह इसमें सफल नहीं रहा। विपक्ष के पास इस चुनाव में खुद को मजबूती से पेश करने की कोई ठोस रणनीति नहीं दिखी। नतीजा यह हुआ कि चुनाव में विपक्ष का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। जबकि एनडीए का प्रदर्शन पिछली बार से भी बेहतर हुआ है। यह घटना एक बार फिर साबित करती है कि विपक्ष बंटा हुआ है तथा किसी भी चुनाव में उसके लिए एकजुट हो पाना आसान नहीं है।

पिछले उपराष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के उम्मीदवार रहे एम. वेंकैया नायडू को 516 मत मिले थे जो कुल मान्य मतों 760 का 68 फीसदी था। जबकि विपक्ष के उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी को 32 फीसदी यानी 244 मत मिले थे। उम्मीद की जा रही थी कि इस बार विपक्ष का प्रदर्शन बेहतर होना चाहिए। लेकिन यह और भी खराब हो गया। विपक्षी उम्मीदवार मार्ग्रेट अल्वा को मान्य मतों का महज 26 फीसदी यानी 182 मत मिले जबकि एनडीए उम्मीदवार जगदीप धनखड़ को 74 फीसदी मत हासिल हुए।

अकाली, शिवसेना भी एनडीए के साथ गए
उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकता का आलम यह रहा है कि एक प्रमुख विपक्षी दल तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव से दूर रहने का फैसला लिया। उसका तर्क था कि उम्मीदवार तय करने के लिए उससे परामर्श नहीं किया। उसके 34 सांसदों ने मतदान नहीं किया। इसी प्रकार शिरोमणि अकाली दल ने बिना मांगे एनडीए का समर्थन किया। उसका तर्क है कि धनखड़ किसान पुत्र हैं, इसलिए उनका समर्थन किया। जब यह सब प्रक्रिया चल रही थी तो महाराष्ट्र में शिवसेना में टूट हुई तथा जो शिवसेना पहले विपक्ष के साथ थी, उसका बड़ा हिस्सा एनडीए के साथ चला गया।

चुनाव के अंत तक यह स्पष्ट नहीं हो रहा था कि विपक्षी एकता का दम भरने वाली टीआरएस किसके साथ है। मतदान से एक दिन पहले टीआरएस ने विपक्ष के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा की। आखिर सवाल यह उठता है कि जब वह सरकार के साथ नहीं है तो फिर विपक्ष के उम्मीदवार को समर्थन में देरी क्यों? सिर्फ इसलिए क्योंकि विपक्षी दलों के अपने-अपने हित हैं जो आपस में टकराते हैं तथा जिसके चलते वे एकजुट होकर ताकतवर नहीं बन पाते हैं।

वाईएसआर और बीजेडी ने भी दिया एनडीए का साथ
इसी प्रकार वाईएसआर कांग्रेस और बीजद ऐसे दल हैं जो एनडीए का हिस्सा नहीं हैं। लेकिन कई मौकों की तरह वे इस बार भी एनडीए के साथ खड़े रहे। विपक्ष इन्हें अपने साथ नहीं ले पाया। कांग्रेस अभी भी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है लेकिन उम्मीदवार के चयन से लेकर विपक्षी दलों को एकजुट करने के कार्य को वह कुशलतापूर्वक अंजाम दे पाने में असफल रही है।

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