5 सितम्बर को हर वर्ष शिक्षक दिवस मनाया जाता है। हमारे जीवन में गुरु या शिक्षक का विशेष महत्व है।  आप संपूर्ण समर्पण करते हैं तो सद्गुरु आपकी अंतरात्मा में बस जाते हैं।आपका मार्गदर्शन करते गुरु और शिष्य का रिश्ता समर्पण के आधार पर टिका होता है। जीवन समर को पार करने के लिए सद्गुरु या सारथी का विशेष महत्व होता है। जीवन में खासकर के आध्यात्मिक सफलता की दिशा में पढ़ना हो तो गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य रूप से लेना पड़ता है। आत्मा-परमात्मा संबंधी ज्ञान हमें गुरु के सहारे प्राप्त होता है। इसके प्रकार के कोई उपदेशक तो बन सकता है पर उसकी गहराई तक उतर कर हीरे-मोती निकालने का ज्ञान गुरु ही देते हैं। वे साधारण को असाधारण और कुछ को महान बना देते हैं। तो इस खास अवसर पर आईये संत कबीर दास जी की कुछ दोहे से शिक्षक का महत्व समझते है।

 

संत कबीर दास के दोहे                                         

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने , गोविन्द दियो बताय।।

अर्थ कबीर दास जी ने इस दोहे में गुरु की महिमा का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति आ जाये की जब गुरु और गोविन्द (ईश्वर) एक साथ खड़े मिलें तब पहले किन्हें प्रणाम करना चाहिए। गुरु ने ही गोविन्द से हमारा परिचय कराया है इसलिए गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊँचा है।

 

तीरथ गए ते एक फल, संत मिले फल चार।

सद्गुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार।।

अर्थ कबीर दास जी कहते हैं कि तीर्थ में जाने से एक फल मिलता है वहीँ किसी संत से मिलने पर चार प्रकार के फल मिलते हैं पर जीवन में अगर सच्चा गुरु मिल जाये तो समस्त प्रकार के फल मिल जाते हैं।

 

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।

वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।

अर्थ गुरु और पारस के अंतर को ज्ञानी पुरुष बहुत अच्छे से जानते हैं। जिस प्रकार पारस का स्पर्श लोहे को सोना बना देता है उसी प्रकार गुरु का नित्य सान्निध्य शिष्य को भी अपने गुरु के समान ही महान बना देता है।

 

गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं।

भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि।।

अर्थ इस दोहे में कबीर दास जी कहते हैं कि हमें कभी भी बाहरी आडम्बर देखकर गुरु नहीं बनाना चाहिए बल्कि ज्ञान और गुण को देखकर ही गुरु का चुनाव करना चाहिए नहीं तो इस संसार रुपी सागर में गोता लगाना पड़ेगा।

 

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।।

अर्थ कबीर कहते हैं कि वे लोग अंधे हैं जो गुरु को ईश्वर से अलग समझते हैं। अगर भगवान रूठ जाएँ तो गुरु का आश्रय है पर अगर गुरु रूठ गए तो कहीं शरण नहीं मिलेगा।

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