बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट के उस मई के आदेश के खिलाफ याचिका दायर की, जिसमें गुजरात सरकार को 1992 के छूट नियम लागू करने की अनुमति दी गई थी. बिलकिस बानो ने 11 दोषियों की रिहाई को चुनौती देते हुए रिट याचिका भी दायर की है.
दोषियों की रिहाई के मामले में बिलकीस बानो की पुनर्विचार याचिका पर जल्द सुनवाई की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हुई थी. सुप्रीम कोर्ट इस मामले में जल्द सुनवाई को तैयार हो गया है. CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि वो आज ही तय करेंगे कि सुनवाई कब होगी. बिलकिस ने सुप्रीम कोर्ट के 13 मई के आदेश के खिलाफ याचिका दायर की, जिसमें गुजरात सरकार को 1992 के छूट नियम लागू करने की अनुमति दी गई थी. अपनी पुनर्विचार याचिका में बिलकिस ने कहा है कि याचिकाकर्ता जो आपराधिक मामले में पीड़ित और अभियोजिका है, उसे रिट याचिका दोषियों ने पक्षकार नहीं बनाया. यही कारण था कि जब तक दोषियों/कैदियों को 15.08.2022 को समय से पहले रिहा नहीं किया गया, तब तक बिलकिस को उक्त रिट याचिका दायर करने या उसमें पारित आदेश के लंबित होने की कोई जानकारी नहीं थी. दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट से महत्वपूर्ण दस्तावेजों/सामग्री को छुपाया.
बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट के उस मई के आदेश के खिलाफ याचिका दायर की, जिसमें गुजरात सरकार को 1992 के छूट नियम लागू करने की अनुमति दी गई थी. बिलकिस बानो ने 11 दोषियों की रिहाई को चुनौती देते हुए रिट याचिका भी दायर की है. याचिका में कहा गया है कि दोषियों को जेल से रिहा नहीं किया जा सकता था. पुनर्विचार याचिका में यह भी कहा गया है कि उपयुक्त सरकार गुजरात राज्य नहीं बल्कि महाराष्ट्र राज्य होगी. महाराष्ट्र राज्य की छूट नीति इस मामले को नियंत्रित करेगी.
दरअसल, दोषी राधेश्याम भगवानदास शाह लाला वकील ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि उसे जेल में 15 साल से ज्यादा हो चुके हैं. ऐसे में गुजरात सरकार को निर्देश दिए जाएं कि वो 9 जुलाई 1992 की नीति के तहत समय- पूर्व रिहाई पर विचार करें. सुप्रीम कोर्ट में दोषी की ओर से बताया गया कि एक अन्य दोषी ने ऐसी ही याचिका बॉम्बे हाईकोर्ट में ऐसी ही याचिका दाखिल की थी लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने ये कहते हुए अर्जी खारिज कर दी कि ये मामला गुजरात है.
सुप्रीम कोर्ट ने केस की अजीबोगरीब स्थिति को देखते हुए ट्रायल मुंबई की निचली अदालत में ट्रांसफर किया था. वहीं दोषी लाला वकील ने गुजरात हाईकोर्ट में भी ऐसी याचिका दाखिल की थी जिसे हाईकोर्ट ने 2019 में ये कहते हुए खारिज कर दिया कि ट्रायल मुंबई में चला था इसलिए समय पूर्व रिहाई का क्षेत्राधिकार महाराष्ट्र का है ना कि गुजरात का. वकील ऋषि मल्होत्रा के माध्यम से दोषी ने सुप्रीम कोर्ट में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया कि महाराष्ट्र सरकार ही इस पर विचार करेगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी दलील को नामंजूर कर दी और पहले के फैसले के आधार पर कानून तय किया कि समय- पूर्व रिहाई पर विचार करने का क्षेत्राधिकार को राज्य होगा जहां अपराध हुआ है, यानी इस मामले में गुजरात सरकार का ही क्षेत्राधिकार रहेगा, लेकिन असली दांव पेंच चला इसी मामले के दूसरे मुद्दे पर. मुद्दा ये था कि गुजरात सरकार कौन सी नीति के तहत समय- पूर्व रिहाई पर विचार करें.
गुजरात में 1992 की नीति पर जो दोषियों के सजा होने के समय लागू थी या फिर 2014 की नीति पर. यहां पर सुप्रीम कोर्ट ने पुराने फैसले के आधार पर फैसला दिया कि चूंकि सजा होने के समय गुजरात में 1992 की नीति लागू थी इसलिए गुजरात सरकार उसी नीति के तहत दोषी की समय- पूर्व रिहाई की अर्जी पर विचार करें. बस ये फैसला दोषियों के लिए मददगार साबित हो गया और गुजरात सरकार ने उस नीति के तहत एक कमेटी का गठन किया और तीन महीने से पहले ही दोषी जेल से बाहर आ गए. दरअसल, 1992 की नीति में 14 साल की सजा के बाद उम्रकैद के कैदियों की समय- पूर्व रिहाई पर विचार हो सकता था, लेकिन 2014 में केंद्र सरकार के प्रस्ताव से जो नीति आई उसमें एक अध्याय और जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि रेप, गैंगरेप और हत्या जैसे जघन्य अपराधों में उम्रकैद की सजायाफ्ता की समय- पूर्व रिहाई पर विचार नहीं होगा यानी 1992 की नीति का फायदा उठाते हुए दोषी जेल से बाहर आ गए.