ऑफिस की खिड़की से जब देखा मैने,मौसम की पहली बरसात को।।
काले बादल के गरज पे नाचती, बूँदों की बारात को।।
एक बच्चा मुझसे निकालकर भागा था भीगने बाहर।
रोका बड़प्पन ने मेरे, पकड़ के उसके हाथ को।।
बारिश और मेरे बचपने के बीच एक उम्र की दीवार खड़ी हो गयी।
लगता है मेरे बचपन की बारिश भी बड़ी हो गयी।।
वो बूँदें काँच की दीवार पे खटखटा रही थी।
मैं उनके संग खेलता था कभी, इसीलिए बुला रही थी।।
पर तब मैं छोटा था और यह बातें बड़ी थी।
तब घर वक़्त पे पहुँचने की किसे पड़ी थी।।
अब बारिश पहले राहत, फिर आफ़त बन जाती है।
जो गरज पहले लुभाती थी,वही अब डराती है।।
मैं डरपोक हो गया और बदनाम सावन की झड़ी हो गयी।
लगता है मेरे बचपन की बारिश भी बड़ी हो गयी।।
जिस पानी में छपाके लगाते, उसमे कीटाणु दिखने लगा।
खुद से ज़्यादा फिक्र कि लॅपटॉप भीगने लगा।।
स्कूल में दुआ करते कि बरसे बेहिसाब तो छुट्टी हो जाए।
अब भीगें तो डरें कि कल कहीं ऑफिस की छुट्टी ना हो जाए।।
सावन जब चाय पकोड़ो की सोहबत में इत्मिनान से बीतता था।
वो दौर, वो घड़ी बड़े होते होते कहीं खो गयी।।
लगता है मेरे बचपन की बारिश भी बड़ी हो गयी।।
Author – अभिनव नागर