कृत्रिम बारिश करना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है. इसके लिए पहले कृत्रिम बादल बनाए जाते हैं. पुरानी और सबसे ज्यादा प्रचलित तकनीक में विमान या रॉकेट के जरिए ऊपर पहुंचकर बादलों में सिल्वर आयोडाइड मिला दिया जाता है. सिल्वर आयोडाइड प्राकृतिक बर्फ की तरह ही होती है. इसकी वजह से बादलों का पानी भारी हो जाता है और बरसात हो जाती है.

कृत्रिम बारिश के लिए बादल का होना जरूरी है. बिना बादल के क्लाउड सीडिंग नहीं की जा सकती. बादल बनने पर सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव किया जाता है. इसकी वजह से भाप पानी की बूंदों में बदल जाती है. इनमें भारीपन आ जाता है और ग्रैविटी की वजह से ये धरती पर गिरती है. वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर के 56 देश क्लाउड सीडिंग का प्रयोग कर रहे हैं.

इसे क्लाउड सीडिंग कहा जाता है

कृत्रिम बारिश की ये प्रक्रिया बीते 50-60 वर्षों से उपयोग में लाई जा रही है. इसे क्लाउड सीडिंग कहा जाता है. क्लाउड सीडिंग का सबसे पहला प्रदर्शन फरवरी 1947 में ऑस्ट्रेलिया के बाथुर्स्ट में हुआ था. इसे जनरल इलेक्ट्रिक लैब ने अंजाम दिया था.

60 और 70 के दशक में अमेरिका में कई बार कृत्रिम बारिश करवाई गई. लेकिन बाद में ये कम होता गया. कृत्रिम बारिश का मूल रूप से प्रयोग सूखे की समस्या से बचने के लिए किया जाता था.

लखनऊ और महाराष्ट्र में हो चुका है प्रयोग

कृत्रिम बारिश की तकनीक महाराष्ट्र और लखनऊ के कुछ हिस्सों में पहले ही परखी जा चुकी है. लेकिन प्रदूषण से निपटने के लिए किसी बड़े भूभाग में इसका प्रयोग नहीं हुआ है. हालांकि भारत में कई दशकों से कृत्रिम बारिश सफलता के साथ कराई जाती रही है. इसे लेकर आईआईटी से संबद्ध द रैन एंड क्लाउड फिजिक्स रिसर्च का काफी योगदान रहा है.

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