जस्टिस दत्ता ने कहा कि “ऐसा नहीं है कि प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता. लेकिन बात ये है कि क्या तारीख को बरकरार रखते हुए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है ? “
नई दिल्ली: भारत के संविधान की प्रस्तावना से “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक अहम टिप्पणी की है. अदालत ने पूछा कि क्या तारीख को बरकरार रखते हुए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता था? अब इस मामले पर अगली सुनवाई 29 अप्रैल को होगी.
दरअसल, मामले की सुनवाई जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की पीठ कर रही थी. इसी दौरान जस्टिस दत्ता ने कहा कि “ऐसा नहीं है कि प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता. लेकिन बात ये है कि क्या तारीख को बरकरार रखते हुए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है ? ” न्यायाधीश ने वकीलों से अकादमिक दृष्टिकोण से इस पर विचार करने को कहा है.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े गए थे. लेकिन संविधान में 1976 का जिक्र नहीं है, बल्कि संविधान को अपनाने की तारीख 29 नवंबर, 1949 की अंकित है. भारतीय संविधान की प्रस्तावना का जिक्र करते हुए, जस्टिस दत्ता ने कहा कि यह शायद एकमात्र प्रस्तावना है जो मैंने देखी है जो एक तारीख के साथ है. इसमें कहा गया है कि हम यह संविधान अमुक तारीख को देते हैं. मूल रूप से ये दो समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष उस समय शब्द वहां नहीं थे.
संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट 29 अप्रैल को सुनवाई करेगा. यह याचिका बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी और बलराम सिंह की ओर से दायर की गई है. याचिका में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े जाने की वैधानिकता को चुनौती दी गई है. कहा गया है कि प्रस्तावना में इन शब्दों को जोड़ना संसद को अनुच्छेद 368 के तहत मिली संविधान संशोधन की शक्ति से परे है.