विश्व आदिवासी दिवस आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। ‘विश्व जनजातीय दिवस’ अर्थात विश्व की सभी जनजातीयों का दिवस। जनजाती को आदिवासी भी कहते हैं। आदिवासी अर्थात जो प्रारंभ से यहां रहता आया है

यह घटना उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करती है जो मूलनिवासी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को बेहतर बनाने के लिए करते हैं। यह पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में घोषित किया गया था, 1982 में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की मूलनिवासी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक का दिन।अंग्रेजी का नेटिव (native) शब्द मूल निवासियों के लिये प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी के ट्राइबल (tribal) शब्द का अर्थ ‘मूलनिवासी’ नहीं होता है। ट्राइबल का अर्थ होता है ‘जनजातीय’।

 

क्यों मनाया जाता है विश्व आदिवासी दिवस

विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में घोषित किया गया था, जिसे हर साल विश्व के आदिवासी लोगों (1995-2004) के पहले अंतर्राष्ट्रीय दशक के दौरान मनाया जाता है। 2004 में, असेंबली ने “ए डिसैड फ़ॉर एक्शन एंड डिग्निटी” की थीम के साथ, 2005-2015 से एक दूसरे अंतर्राष्ट्रीय दशक की घोषणा की।आदिवासी लोगों पर संयुक्त राष्ट्र के संदेश को फैलाने के लिए विभिन्न देशों के लोगों को दिन के अवलोकन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। गतिविधियों में शैक्षिक फोरम और कक्षा की गतिविधियाँ शामिल हो सकती हैं ताकि एक सराहना और आदिवासी लोगों की बेहतर समझ प्राप्त हो सके।

 

भारत के आदिवासी

भारत में रहने वाला हर व्यक्ति आदिवासी है लेकिन चूंकि विकासक्रम में भारतीय वनों में रहने वाले आदिवासियों ने अपनी शुद्धता बनाए रखी और वे जंगलों के वातावरण में खुले में ही रहते आए हैं तो उनकी शारीरिक संवरचना, रंग-रूप, परंपरा और रीति रिवाज में को खास बदलावा नहीं हुआ। हालांकि जो आदिवासी अब गांव, कस्बे और शहररों के घरों में रहने लगे हैं उनमें धीरे धीरे बदलवा जरूर आएंगे। भारत में लगभग 461 जनजातियां हैं। उक्त सभी आदिवासियों का धर्म हिन्दू है, लेकिन धर्मांतरण के चलते अब यह ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध भी हैं।भारत के उत्तरी क्षेत्र जम्मू-कश्मीर, उत्तरांचल और हिमाचल प्रदेश में मूल रूप में लेपचा, भूटिया, थारू, बुक्सा, जॉन सारी, खाम्पटी, कनोटा जातियां प्रमुख हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र (असम, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय आदि) में लेपचा, भारी, मिसमी, डफला, हमर, कोड़ा, वुकी, लुसाई, चकमा, लखेर, कुकी, पोई, मोनपास, शेरदुक पेस प्रमुख हैं। पूर्वी क्षेत्र (उड़ीसा, झारखंड, संथाल, बंगाल) में जुआंग, खोड़, भूमिज, खरिया, मुंडा, संथाल, बिरहोर हो, कोड़ा, उंराव आदि जातियां प्रमुख हैं। इसमें संथाल सबसे बड़ी जाति है।

पश्चिमी भारत (गुजरात, राजस्थान, पश्चिमी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र) में भील, कोली, मीना, टाकणकार, पारधी, कोरकू, पावरा, खासी, सहरिया, आंध, टोकरे कोली, महादेव कोली, मल्हार कोली, टाकणकार आदि प्रमुख है। दक्षिण भारत में (केरल, कर्नाटक आदि) कोटा, बगादा, टोडा, कुरूंबा, कादर, चेंचु, पूलियान, नायक, चेट्टी ये प्रमुख हैं। द्वीपीय क्षेत्र में (अंडमान-निकोबार आदि) जारवा, ओन्गे, ग्रेट अंडमानीज, सेंटेनेलीज, शोम्पेंस और बो, जाखा, आदि जातियां प्रमुख है।इनमें से कुछ जातियां जैसे लेपचा, भूटिया आदि उत्तरी भारत की जातियां मंगोल जाति से संबंध रखती हैं। दूसरी ओर केरल, कर्नाटक और द्वीपीय क्षेत्र की कुछ जातियां नीग्रो प्रजाति से संबंध रखती हैं।

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