सावन का महिना मनभावन होता है। पेड़ पौधे, जीव-जंतु सभी इस महिना में खुशी से झूमते-नाचते-गाते हैं। ऐसे मनभावन मास में अमावस के दिन छत्तीसगढ़ का महापर्व “हरेली “आता है। हरेली मनाते छत्तीसगढ़ के रहवासी अपने खेत-खार, गाय-बैल, घर-परिवार की सुख-समृद्धि हेतु मनौती मांगते हैं। इन अर्थों में हरेली लोकहितैषी त्योहार है। पुराने समय में इसे बड़े धूमधाम से मनाने का चलन था,पर बदलते वक्त और नये जमाने के रंग ने हरेली के रंग को बदरंग करना आंरभ कर दिया।

हरेली  के पर्व पर पर सभी किसान ग्रामीणजन अपने अपने घर के पुस्तैनी किसानी औजार जैसे हल,(नागर ) फावड़ा, कुदाली (गैंती), हंसिया, एवं खेती किसानी के अन्य छोटे बड़े औजार को साफ सुथरा धोकर, गोबर से लिपे पुतेऔर रंगोली से सजे आंगन में रखकर पूजा करते है। इस बहाने किसानी कार्य में उपयोग लिए जाने वाले पशुओं को आराम मिल जाता है और औजारों की साफ-सफाई तथा मरम्मत का कार्य भी वर्ष भर के लिए पूर्ण हो जाता है। गाय बैलों को निरोगी बनाए रखने के लिए हरेली के दिन नमक और औषधियुक्त पौधों की पत्तियों को पीसकर “लौंदी” बनाकर खिलाया जाता है। इससे पशुधन की रक्षा होती है

नीम पत्ती घर द्वार में लगाते हैं

हरेली के पर्व में गांव -गांव घर -घर के द्वार पर नीम की टहनियां को टांगने का रिवाज है। इसके पीछे एक बड़ा कारण यही है कि बरसात के मौसम में विविध प्रकार की बीमारियां का जन्म और फैलाव होता है। ऐसी बीमारियों को जन्म देने वाले कीटाणु को मारने की ताकत नीम की पत्ती में होती है, यह पत्ती संक्रमण को रोकने और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में भी सहायक है, अत: हरेली पर्व पर नीम की पत्तियां लगाने की प्रथा अत्यंत पुरानी है । इस दृष्टि से हरेली का त्योहार पेड़ पौधों की भी सुरक्षा और मानव जीवन में स्वच्छ पर्यावरण की उपादेयता को भी बताता है।

चौखट पर कील ठोकने का रिवाज

हरेली पर्व के दिन घर -घर के बाहर दरवाजे के चौखट पर गांव के लोहार द्वारा कील ठोकने की भी प्रथा है। इसके पीछे एक बड़ा राज यही छुपा हुआ है कि वर्षा काल में बरसते बादल और बिजली गिरने का बड़ा खतरा होता है। ऐसी आकाशीय बिजली को लोहे से निर्मित वस्तुएं अपनी और खींच कर जमीन में समाहित कर देती हैं, जिससे जीव जंतुओं पर बिजली गिरने का खतरा कम हो जाता है।

हालांकि आज के जमाने में अब अधिकांश घरों में लोहे से निर्मित खिड़की ग्रिल दरवाजे लगाने का प्रचलन है इसीलिए अब चौखट पर कील ठोकने की प्रथा भी लगभग समाप्त हो चली है,। ये पुरानी प्रथाएं रिवाज हमें बताते हैं कि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं हमारी अधिकांश पारंपरिक प्रथाएं, जिन्हें हमारे अनपढ़ पुरखों ने अपने व्यावहारिक ज्ञान के बूते आजमाया है।

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