देशज पसमांदा को पहले से ही ओबीसी में उनके पिछड़े और दलित को और एसटी में उनके आदिवासी जनजाति को आरक्षण का लाभ मिल रहा है। यह भ्रम मन से निकाल देना चाहिए कि यह केवल आरक्षण की लड़ाई है।

जब से प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं को यह निर्देश दिया है कि वो देशज पसमांदा को भी पार्टी से जोड़ें तभी से विदेशी अशराफ और देशज पसमांदा के बीच नस्लीय एवं जातीय विभेद और मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का मुद्दा मुख्यधारा की मीडिया में बहस के केंद्र में है, जिसे अब तक इग्नोर किया जाता रहा है। लेकिन कुछ लोगों द्वारा इस पूरे बहस को केवल आरक्षण से जोड़कर पसमांदा आंदोलन की मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की अति आवश्यक न्यायसंगत मांग को दिशाहीन करने का प्रयास किया जा रहा है। लोगों को यह भ्रम अपने मन से निकाल देना चाहिए कि पसमांदा आंदोलन केवल आरक्षण की लड़ाई लड़ रहा है। देशज पसमांदा को पहले से ही ओबीसी में उनके पिछड़े और दलित को और एसटी में उनके आदिवासी जनजाति को आरक्षण का लाभ मिल रहा है। आंदोलन मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय और विदेशी अशराफ द्वारा देशज पसमांदा के सांस्कृतिक भेदभाव के विरुद्ध संघर्षरत है।

इस विषय पर पसमांदा कार्यकर्ता अब्दुल्लाह मंसूर उर्फ लेनिन मौदूदी कहते हैं कि “पसमांदा आंदोलन आरक्षण पाने की लड़ाई नहीं है। अशराफ साथी इसे आरक्षण से जोड़ कर सीमित करना चाहते हैं। यह आंदोलन सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक होने के साथ-साथ कला एवं साहित्य में भी अपने अस्तित्व की लड़ाई है। हम यह देखते हैं कि कैसे नारीवाद और साम्यवाद अपने वर्गीय हितों की लड़ाई के रूप में शुरू हुए थे और आज उनकी उपस्थिति समाज से लेकर राजनीति तक और अर्थव्यवस्था से लेकर साहित्य तक हर जगह मौजूद है। आपको साम्यवादी तथा नारीवादी कवि-शायर, लेखक, पेंटर, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ तथा इतिहासकार आदि मिल जाएंगे। नारीवाद और साम्यवाद की तरह पसमांदा आंदोलन भी एक दृष्टिकोण पैदा करने की कोशिश कर रहा है जिससे आप समाज के हर पक्ष को उस की दृष्टि से देख सकें और उसमें मौजूद पसमांदा पक्ष को समझ सकें।”

प्रधानमंत्री की इस पहल से सबसे अधिक बेचैनी मुस्लिम समाज के एलीट अशराफ वर्ग में देखी जा रही है जो अपनी संख्या के लगभग दुगुने से भी अधिक अनुपात में लगभग सभी क्षेत्रों में मुस्लिम नाम पर कब्जा जमाए बैठा है। उसे लगता है कि अगर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का प्रश्न तलहटी से उठकर सतह पर आया तो देशज मुसलमानों (पसमांदा) के लिए उनकी संख्या, जो कुल मुस्लिम संख्या का लगभग 90% है, के अनुरूप जगह खाली करनी पड़ सकती है, जिससे उसके सत्ता एवं वर्चस्व के साथ साथ देशज पसमांदा समाज पर पकड़ कमज़ोर पड़ सकती है। ऐसी स्थिति में मुस्लिम धर्मावलंबी दलितों के आरक्षण के प्रश्न को प्राथमिकता देकर पसमांदा आंदोलन की कमर तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।

इस भ्रम में बहुत से पसमांदा कार्यकर्ता आ भी गए हैं और अशराफ की ही भाषा बोलने लगे हैं। अशराफ वर्ग का यह अनुमान है कि भाजपा शायद ही इस मांग को मानेगी और बहुत दबाव पड़ने पर वो पसमांदा विमर्श से हाथ पीछे खींच भी सकती है। दूसरी ओर इस पूरे मामले को यह कह कर हिन्दू-मुस्लिम का रंग देने का भी प्रयास किया जा रहा है कि जब हिन्दू दलितों को आरक्षण है तो मुस्लिम दलितों को क्यों नहीं, जबकि मुस्लिम धर्मावलंबी दलितों को ओबीसी का आरक्षण मिल रहा है। इससे मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बल मिलेगा और समाज में मजहबी ध्रुवीकरण बढ़ेगा, जिसका सीधा फायदा हमेशा की तरह अशराफ वर्ग को ही होगा और इस प्रकार मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का प्रश्न एक बार फिर हाशिए पर चला जायेगा जो देशज पसमांदा समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। अगर इन्हें मुस्लिम धर्मावलंबी दलितों की इतनी ही चिंता है तो पहले अपनी संस्थाओं जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी आदि में क्यों नहीं उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सामाजिक न्याय के प्रति अपनी निष्ठा सिद्ध कर देते?

ये वही लोग हैं जिन्होंने मण्डल कमीशन द्वारा मुस्लिम धर्मावलंबी पिछड़ों और दलितों को भी ओबीसी के आरक्षण में स्थान देने के बाद, जिसके फलस्वरूप लगभग 90% हकदार मुस्लिमों (पसमांदा) को आरक्षण का लाभ मिलने लगा, पूरे देश में मुस्लिम आरक्षण का राग अलापना शुरू कर दिया। मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने के नाते इनको कमजोर और जरूरतमंद मुसलमानों को बजाय यह बताने के, कि आरक्षण का लाभ हासिल करो, उनको सड़कों पर निकालकर “मुसलमानों को भी आरक्षण दो” नारा लगवाने लगें। तपती धूप में नारा लगाने वाला देशज पसमांदा को पता ही नहीं कि वो बेचारा तो पहले से ही आरक्षण की परिधि में आ रहा है। जब 90% मुसलमानों को आरक्षण मिल रहा है तो फिर ये किन मुसलमानों के लिए मुस्लिम आरक्षण की मांग हो रही थी? जब से ईडब्ल्यूएस में अशराफ वर्ग को भी आरक्षण मिलने लगा इन लोगों ने अब मुस्लिम आरक्षण की मांग बंद कर दिया। ये है इनका अशराफ चरित्र।

पसमांदा आंदोलन का आरक्षण को लेकर पहले से ही स्पष्ट राय रही है कि आरक्षण पॉलिसी की विवेचना होनी चाहिए और यह देखा जाना चाहिए कि क्या सभी अर्ह वर्गों और जातियों तक उसका लाभ पहुंच रहा है कि नहीं। दूसरी बात पसमांदा आंदोलन की यह भी मांग रही है कि कर्पूरी ठाकुर फॉर्मूले के अनुसार ओबीसी का वर्गीकरण किया जाय। पसमांदा की जो जातियां ओबीसी आरक्षण के लिए अर्ह हैं और वो अब तक ओबीसी की लिस्ट में नहीं हैं उन्हें चिन्हित कर ओबीसी की लिस्ट में सम्मिलित किया जाय। बहुत सी ऐसी पसमांदा जातियां हैं जो केंद्र की ओबीसी सूची में हैं लेकिन राज्य की ओबीसी लिस्ट में नहीं हैं और इसके उलट भी हैं। अर्थात राज्यों की ओबीसी लिस्ट में शामिल हैं लेकिन केंद्र की ओबीसी लिस्ट से गायब हैं, इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए। ऐसे ही बहुत सी पसमांदा जनजाति (ट्राइब) समाज हैं जो एसटी आरक्षण के लिस्ट में सम्मिलित होने की पात्र तो हैं लेकिन लिस्ट से बाहर हैं। ऐसी जनजाति को पहचानकर उन्हें एसटी आरक्षण में जगह दिया जाना चाहिए। एससी आरक्षण पर 1950 के प्रेसिडेंशियल ऑर्डर के तहत ईसाई और मुस्लिम धर्मावलंबी दलित के लिए रोक है, जिस कारण पसमांदा की दलित जातियां एससी आरक्षण का लाभ नहीं ले पाती हैं जबकि वो ओबीसी आरक्षण के दायरे में शामिल। इसके लिए भी मांग रही है कि उनके सामाजिक और आर्थिक स्तिथि के अनुसार ओबीसी से निकालकर एससी आरक्षण में समाहित किया जाय।

पसमांदा आंदोलन देशज पसमांदा समाज के राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के लिए संघर्षरत है। आंदोलन की प्रमुख मांग अल्पसंख्यक और मुस्लिम नाम पर संचालित सरकारी, अर्ध सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं और संगठनों यथा अल्पसंख्यक आयोग, वक्फ बोर्ड, मदरसा बोर्ड, उर्दू बोर्ड, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी,जामिया मिल्लिया इस्लामिया, इंटीग्रल यूनिवर्सिटी, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, मिल्ली काउंसिल, मजलिसे मशवरत, इमारतें शरिया आदि में देशज पसमांदा समाज को उसकी आबादी के अनुरूप भागीदारी सुनिश्चित की जाय। यह समय पसमांदा कार्यकर्ताओं के लिए बहुत ही निर्णायक है उनको बड़ी ही सूझ-बूझ के साथ इस गोल्डन अवसर का फायदा उठाते हुए अपने उन समस्याओं को सरकार के सामने पहले रखना चाहिए जो जरूरी भी हैं और यह उम्मीद भी है कि सरकार उसको मान भी लें या कम से कम इस दिशा में सकारात्मक पहल करे।

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