इस प्रकार हम देखते हैं कि सारे मुसलमानों को एक मंच पर लाने के लिए किए जा रहे प्रयास में देशज पसमांदा को शामिल करना तो दूर उनको रजील जैसे अरबी भाषा की गाली (अपशब्द) कह कर खारिज कर दिया गया।
स्वघोषित विदेशी शासक वर्गीय अशराफ मुसलमानोंं द्वारा देशज पसमांदा मुसलमानोंं के साथ नस्लीय/जातीय और सांस्कृतिक शोषण एवं उत्पीड़न कोई आज का नया नहीं है, बल्कि अशराफ के भारत में विजेता शासक के रूप में पदार्पण के साथ ही इसका इतिहास शुरू हो जाता है। अशराफ ने भारतीय मूल के मुसलमानों को अपना सहधर्मी भाई समझ कर समानता और सद्भाव का व्यवहार करना तो दूर देशज पसमांदा को मुसलमान तक नहीं समझा।
उदाहरण स्वरूप किसी भी अशराफ के प्रभुत्व वाले क्षेत्र में जहां अशराफ कभी राजा, नवाब, जमींदार रहा है या आज एमएलए एमपी चेयरमैन रूपी जनप्रतिनिधि रहा है या है, वहां मियां केवल उन्हें ही कहा जाता है और देशज पसमांदा को उनकी जातिगत नामों से संबोधित किया जाता है। जैसे वो नट है, धोबी है, मेहतर है जुलाहा है, धूनिया है आदि।
वहीं हिन्दू बहुल क्षेत्रों में हिन्दू समाज पहचान के लिए सम्मान के साथ देशज पसमांदा के नाम के आगे मियां लगा कर पुकारते है जैसे कुबेर मियां, चिखुरी मियां, मल्ली मियां(तीनों मेरे पूर्वजों के नाम हैं), गोरख मियां, झाबू मियां, बदर मियां(नूर मोहम्मद जो 1937 में एमएलए बने थे, के नाना जी), बचई मियां (भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के पिता, स्वच्छकार बाल्मिकी समाज से थे)।
शायद यही एक बड़ा कारण जान पड़ता है कि आसिम बिहारी ने अपने आंदोलन का नाम जमीयतुल मोमिनीन (मोमिनों का संगठन) रखा था। मोमिन का अर्थ होता है अच्छा मुसलमान अर्थात आसिम बिहारी विदेशी शोषक मुसलमानों को यह जताना चाहते थे कि देखो हम भारतीय मुसलमान सिर्फ मुसलमान ही नहीं, बल्कि तुमसे अच्छे मुसलमान(मोमिन) हैं।
सल्तनत काल और मुगल काल जिसे मैं सामूहिक रूप से अशराफ शासन काल कहता हूं, में देशज पसमांदा के साथ भेदभाव अपने चरम पर था। केवल ग्यासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल इसका अपवाद था। मुहम्मद बिन तुगलक जिसका असल नाम जऊना था जिस के नाम पर जौनपुर का नाम पड़ा, ने अपने पिता की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए तथाकथित नीच समझी जाने वाली जातियों से सम्बन्धित हिन्दू और मुसलमानों को उनकी योग्यता के आधार पर शासन प्रशासन में नियुक्त किया था।
दोनों पिता पुत्रों ने उस समय के प्रचलित इस्लामी फिक्ह (विधि) के विरुद्ध जाकर बहुत से राजद्रोही सैय्यद सुफियों और अन्य अपराधी सैय्यदों को मौत की सजा दी। ज्ञात रहे कि इस्लामी कानून के अनुसार सैय्यद को मृत्यु दण्ड की सजा नहीं दी जा सकती है।
स्वतंत्रता संग्राम के समय मुस्लिम लीग सहित कई एक मुस्लिम संगठन सक्रिय थे और उसमें एक मुस्लिम कान्फ्रेंस भी था। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने सभी मुस्लिम संगठनों को आपसी सहमति के साथ मिल कर एक मंच के माध्यम से काम करने के उद्देश्य से एक अधिवेशन का आयोजन (15-16 नवंबर 1930 ई०) किया। अधिवेशन में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस और उसके अध्यक्ष बैरिस्टर नवाब मुहम्मद इस्माईल खान ने उस समय के सभी बड़े छोटे मुस्लिम संगठनो को आमन्त्रित किया गया था।
इस अवसर पर प्रथम पसमांदा आंदोलन, जमीयतुल मोमिनीन(मोमिन कॉन्फ्रेंस) के जनक आसिम बिहारी को भी आमन्त्रित किया गया था। बिहारी जी ने समाज की एकता और अखंडता पर एक बेहतरीन भाषण भी दिया। लेकिन जब बिहारी जी ने जमियतुल मोमिनीन और जमियतुल क़ुरैश (एक अन्य प्रमुख पसमांदा संगठन) जैसे देशज पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी पिछड़े, दलितों और आदिवासी) संगठनों की भागेदारी की बात की और कहा कि “आप इन दोनों संगठनों से जुड़े लोगों को भी बज़ाब्ता (बॉय लॉज़) अपने संगठन में जगह दें, जैसा कि आप ने खिलाफत आंदोलन, मुस्लिम लीग, मजलिसे अहरार और जमियतुल उलेमा जैसे संगठनों से जुड़े लोगों को दिया है।” इसके जवाब में नवाब ने कहा कि आप पहले इन संगठनों से आवेदन पत्र दिलवाएं फिर उन पर विचार किया जायेगा।
लेकिन जब आसिम बिहारी ने पूछा कि क्या आप ने खिलाफत आंदोलन, जमियतुल उलेमा, मजलिसे अहरार और मुस्लिम लीग जैसे अन्य दूसरे संगठनों से आवेदन पत्र लिया था? अगर हां तो वो आवेदन पत्र दिखाएं। उस सवाल पर नवाब आंय बांय करने लगा। फिर भी आसिम बिहारी के बहुत आग्रह पर नवाब ने इन पसमांदा संगठनों (जमियतुल मोमिनीन और जमियतुल क़ुरैश) को मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में शामिल करने या ना करने के फैसले को एक सब-कॉमेटी गठित करके उसके हवाले कर दिया। इस कॉमेटी में सिर्फ अशराफ मुस्लिमों को ही मेंबर बनाया गया था। भैया जी(रशीदुद्दीन, जमियतुल क़ुरैश के अध्यक्ष) के बहुत आग्रह और मान मनौव्वल के बाद भी नवाब ने आसिम बिहारी को कमेटी का मेंबर ना बनाया।
कमेटी ने इन संगठनों को शामिल करने के दावे को ये कह कर रद्द कर दिया कि “जमियतुल मोमिनीन और जमियतुल क़ुरैश जैसे रज़िलो (नीच/मलेछो) के संगठनों को शामिल करना किसी भी तरह से अशराफ के हक़ में ना होगा, ये लोग तो हर मीटिंग और कॉन्फ्रेंस में बड़ी मुस्तैदी एवं पाबन्दी से शामिल होंगे और हमारे लोग कभी हाज़िर होंगे और कभी नहीं होंगे, लेकिन ये लोग तो सत्तू बांध कर आ धमकेंगे और जब तक जलसा खत्म ना होगा डटे रहेंगे, जिसका नतीजा ये होगा कि जो चाहेंगे कर लेंगे।” (यह पूरा प्रकरण प्रो०अहमद सज्जाद द्वारा उर्दू भाषा में लिखित आसिम बिहारी की जीवनी ‘बंदये मोमिन का हाथ’ में दर्ज है)
इस प्रकार हम देखते हैं कि सारे मुसलमानों को एक मंच पर लाने के लिए किए जा रहे प्रयास में देशज पसमांदा को शामिल करना तो दूर उनको रजील जैसे अरबी भाषा की गाली (अपशब्द) कह कर खारिज कर दिया गया। आज भी स्तिथि में कोई विशेष बदलाव नहीं है, इसीलिए आज देश के स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी मुस्लिम नाम से चलने वाले किसी भी संस्था और संगठन में देशज पसमांदा की भागेदारी ना के बराबर है।
‘ख़ुदावन्द यह तेरे सादा दिल बन्दे किधर जायें
के दरवेशी भी अय्यारी है सुल्तानी भी अय्यारी’