नई दिल्ली: किसी व्यक्ति की जाति जीवन की क्वॉलिटी ही नहीं, क्वांटिटी को भी प्रभावित करती है। इस दावे से आप चौंक भले ही जाएं, लेकिन हालिया अध्ययन में साफ कहा गया है कि ऊंची जाति के लोग, दलितों और आदिवासियों के मुकाबले 6 साल तक ज्यादा जीते हैं। ऊंची जाति यानी सवर्णों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा सुविधाएं मिलती हैं और वो आरामदायक जिंदगी जीते हैं, इसकी पुष्टि तो होती ही रहती है। जाति आधारित जीवन पर किए गए ताजा सर्वे में सामने आया है कि देश के हर हिस्से में जाति समूहों के पदानुक्रम के मुताबिक औसत जिंदगी भी निर्धारित होती है। खास बात यह है कि जाति आधारित जिंदगी की मियाद पर आमदनी के स्तर का कोई असर नहीं होता। वैसे तो सभी जाति समूहों में जीवन प्रत्याशा लगातार सुधर रही है, लेकिन उनके बीच अंतराल में कमी नहीं आई है। यहां तक कि वर्ष 1997-2000 से 2013-2016 के बीच तो इस गैप में बढ़ोतरी ही हुई है।

सवर्ण और मुस्लिम पुरुषों की आयु में बढ़ा अंतर

सवर्णों और अनुसूचित जाति के पुरुषों के बीच आयु में 4.6 से 6.1 वर्ष का अंतर होता है। वहीं, सवर्ण और मुस्लिम पुरुषों की आयु में अंतर 0.3 वर्ष से बढ़कर 2.6 वर्ष का हो गया है। यानी, सवर्ण पुरुष के मुकाबले दलित पुरुष 6.1 वर्ष जबकि मुसलमान परुष 2.6 वर्ष कम जीते हैं। इसी तरह, सवर्ण महिलाओं की आयु मुस्लिम महिलाओं के मुकाबले अब 2.8 वर्ष ज्यादा जीती हैं। पहले इनके बीच का औसत अंतर 2.1 वर्ष का था। ये सभी आंकड़े राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के दूसरे और चौथे दौर के अध्ययनों में सामने आए हैं। यह स्टडी जर्नल पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट रिव्यू में प्रकाशित हुई है।

सवर्ण और मुस्लिम महिलाओं की आयु में अंतर घटा
स्टडी के अनुसार, आम तौर पर सवर्णों और दलितों की महिलाओं की आयु के बीच के अंतर में मामूली कमी आई है, लेकिन सवर्ण पुरुषों के मुकाबले दलित, मुसलमान और ओबीसी पुरुषों की आयु के बीच का अंतर और बढ़ा है। हालांकि, सवर्ण पुरुषों के मुकाबले आदिवासी पुरुषों की आयु के बीच का अंतर 8.4 वर्ष से घटकर 7 वर्ष का रह गया है। महत्वपूर्ण यह भी है कि सवर्णों के मुकाबले अन्य जाति-धर्म के लोगों की जीवन प्रत्याशा में यह अंतर जन्म के वक्त और बाद की जिंदगी, दोनों के आधार पर देखा गया है।

आर्थिक स्थिति समान, फिर भी ज्यादा जीते हैं ऊंची जाति के लोग
एक अन्य स्टडी में तो बेहद चौंकाने वाली बात सामने आई है। वो यह कि बराबर आर्थिक स्थिति वाले सवर्ण और अन्य जातियों की आयु में भी अंतर होता है। यानी, एक ही आर्थिक हैसियत के सवर्ण, दलित, आदिवासी और मुसलमान के मुकाबले ज्यादा जीते हैं। मतलब साफ है कि सुविधाहीन वर्ग में शिशु और बाल मृत्यु की उच्च दर का भी इससे कोई लेना-देना नहीं है और ना आर्थिक स्थिति से।

देश के बाकी हिस्से के मुकाबले कम जीते हैं हिंदी भाषी प्रदेशों में लोग
अमूमन यह धारणा होती है कि किसी समूह की जीवन प्रत्याशा उसमें बाल मृत्यु दर पर आधारित होती है, लेकिन ताजा स्टडी ने इसे झकझोर कर रख दिया है। अगर क्षेत्र की बात करें तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसढ़ जैसे हिंदी भाषी राज्यों में सभी जाति के लोगों की जीवन प्रत्याशा देश के बाकी हिस्से के लोगों के मुकाबले सबसे कम पाई गई है। इन हिंदी भाषी राज्यों में भारत की 44 प्रतिशत आबादी बसती है।

इस मामले में सवर्णों से भी आगे थे मुसलमान, लेकिन अब नहीं

वर्ष 1997-2000 में जीवन प्रत्याशा के लिहाज से सवर्णों के ठीक नीचे मुसलमानों की नंबर था। वर्ष 2013-16 में भी यही स्थिति है, लेकिन दोनों के बीत गैप अच्छा-खासा बढ़ गया है। 1997-2000 में एक पैटर्न सामने आया जिसे अकादमिक दुनिया में मुस्लिम मृत्यु दर विरोधाभास (Muslim mortality paradox) की संज्ञा दी गई थी। इसका कारण यह था कि सामाजिक तौर पर पिछड़ा होने के बावजूद मुस्लिमों में शिशु मृत्यु दर सर्वणों से भी कम थी। तब कहा गया था कि मुस्लिम समाज में खुले में शौच का चलन तुलनात्मक तौर पर कम है, इस कारण स्वास्थ्य समस्याएं भी कम होती हैं। हालांकि, इसकी कई और वजहें बताई गई थीं। ताजा स्टडी में कहा गया है कि ऐसा अब क्यों नहीं हो रहा है, इसकी पड़ताल करनी होगी।

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