कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र ढोलिया, बेमेतरा में ऐसे फल वृ़क्ष प्रजातियों के ऊपर कार्य प्रारंभ किया जा रहा है जो कि विलुप्ति के कगार पर है। जिससे किसानों को पौष्टिक आहार के रूप में इन फलों की प्राप्ति हो सके।कैथा (लिमोनिया एसिडिसिमा) देखने में बेल के समान, पर उससे अधिक कठोर आवरण वाला फल है जिसे वुड एप्पल अथवा मंकी फ्रूट के नाम से भी जाना जाता है। इसके पेड़ पर्णपाती होते हैं और भारत के पहाड़ी क्षेत्रों तथा जंगलों में बहुतायत में पाए जाते हैं लेकिन आबादी वाले क्षेत्रों में इनकी संख्या कम होती जा रही है। आज से दो-तीन दशक पहले कैथा के पेड़ बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और लोगों की उपेक्षा ने कैथा को विलुप्ति के कगार पर पहुँचा दिया है।
कैथा का स्वाद खट्टा तथा कसैला होता है, जबकि पके हुए कैथा के गूदे का स्वाद खट्टा-मीठा होता है और इसके बीज गूदे से ही लगे होते हैं। दक्षिण भारत में कैथा के गूदे को मिसरी और नारियल के दूध के साथ मिलाकर खाया जाता है। इंडोनेशिया में कैथा के गूदे में शहद मिलाकर सुबह के नाश्ते में खाया जाता है। वहीं थाईलैंड में इसके पत्तों को सलाद में मिलाकर खाया जाता है। कैथा के गूदे से जैम, जेली, शरबत, चॉकलेट, कैंडी, अचार तथा चटनी भी बनायी जाती है। इसके अलावा कैथा के गूदे (लुगदी) को कॉस्मेटिक के घटक के रूप में उपयोग किया जाता है। कैथा की लकड़ी हल्की भूरी, कठोर तथा टिकाऊ होती है, इसका उपयोग इमारती लकड़ी के तौर पर भी किया जाता है।
सांस्कृतिक महत्वः- कैथा को संस्कृत में कपित्थ कहा जाता है और गणेश वंदना में इस फल का जिक्र किया जाता है, इसके अनुसार कपित्थ फल गणेशजी के प्रिय फलों में से एक है।
प्राकृतिक औषधिः- कैथा के पत्तों से निकाले गए तेल का उपयोग खुजली के उपचार सहित अन्य कई प्रकार की बीमारियों के इलाज के लिए औषधि के तौर पर सदियों से किया जाता रहा है। कैथा में पाए जाने वाले अम्ल, विटामिन और खनिज लिवर टॉनिक का काम करते हैं। यह फल रोग प्रतिरोधक क्षमता तथा पाचन क्रिया को अच्छा बनाये रखने में सहायक है।मांसाहारियों के लिए विटामिन बी-12 के बहुत से विकल्प उपलब्ध हैं, परंतु शाकाहारियों के लिए बहुत ही कम विकल्प उपलब्ध हैं, जिसमें कैथा विटामिन बी-12 की आपूर्ति के लिए सबसे अच्छा और सस्ता स्त्रोत है। बीज से उगाए गए पौधे करीब 5 से 10 साल में फल देने लगते हैं। परती पड़ी भूमि का सदुपयोग कर अतिरिक्त आय की प्राप्ति की जा सकती है। जहाँ पर पानी की अपर्याप्त उपलब्धता होती है वहाँ पर इसकी फसल आसानी से लगायी जा सकती है। इसके उत्पादन के लिए ज्यादा खाद-उर्वरक एवं प्रबंधन की आवश्यकता कम होती है।