भारत में प्राचीन काल से ही अलग-अलग प्रथाएं चलती आ रही है। हमारे समाज में शुरू से ही तमाम ,कुरुतियाँ,रीतिरिवाज और अंधविश्वास का डेरा है। ये प्रथाएं ज्यादातर केवल महिलाओं के लिए ही बनाई जाती थी।प्रथा के नाम पर अत्याचार किया जाता था या कह सकते है कि नर्ख में धकेल दिया जाता था। वैसे तो भारत देश मे कई प्रथाएं है जैसे सती प्रथा,जोहर प्रथा, पर्दा प्रथा इनमें से ही एक प्रथा हैं देवदासी प्रथा जिसमे नाम से ही पता चलता है कि देवता की दासी यानि कि देवता की पत्नी क्यूंकि हिन्दू धर्म में पत्नी को पति का दासी माना जाता था। कई जगहों पर अभी भी माना जाता है।
क्या है देवदासी प्रथा
देवदासी या देवारदियार का मतलब होता है ‘सर्वेंट ऑफ गॉड’, यानी देव की दासी। देवदासी बनने का मतलब होता था भगवान या देव की सेवा के लिए उनकी शरण में चले जाना। उन्हें भगवान की पत्नी समझा जाता था। देवदासी बनने के बाद महिला न किसी और पुरुष से शादी कर सकती थी और नाही किसी और पुरुष से शारीरिक संबंध बना सकती थी । उन्हें सामान्य जीवन से अलग जीवन जीना पड़ता था ।अगर हम इतिहास के धार्मिक पन्नों पर नज़र डालें तो मत्स्य पुराणों के अनुसार ‘कोई भी व्यक्ति जो अपनी कन्या को मंदिर में दान करेगा, वह विष्णु लोक में पहुंचेगा’। इसी धार्मिक अंधविश्वास में लोग अपनी कुंवारी बेटियों की शादी मन्दिर के देवताओं से करवाने लगे। ये ‘देवदासी’ एक हिन्दू धर्म की प्राचीन प्रथा थी। भारत के कुछ क्षेत्रों में खास कर दक्षिण भारत में महिलाओं की देवता से शादी उनके मर्जी के बिना कर दी जाती थी। फिर यह लड़कियाँ/महिलाएँ मंदिर में ही रहती थी और भगवान की सेवा करती थी और मंदिर की साफ़-सफ़ाई व देख-रेख का काम करती थी । इसकी शुरुआत छठी और सातवीं शताब्दी के आसपास हुई थी।इसी प्रकार ईसाई धर्म में नन की शादी जीसस(इशु मसीही) से की जाती हे ओर वो नन भी इशु मसीही को ही अपना पति मानती थी।
देवदासी प्रथा का बदलता हुआ रूप
देवदासी प्रथा ने धीरे धीरे अलग ही रूप ले लिया जहां पहले लोग धार्मिक अंधविश्वास के कारण स्वर्ग प्राप्ति के लिए कुवारी लड़कियो का विवाह देवता से करवाते थे वहीं दूसरी ओर माता पिता आर्थिक कमी के कारण अपनी जरूरत पूरी के करने क लिए अपनी ही बेटी की देवता से शादी करवाने लगे।माता-पिता ही देवदासी बनने को मजबूर करने लगे।हमारे आधुनिक समाज में अभी भी छोटी बच्चियों को धर्म के नाम पर देवदासी बनने के लिए मजबूर किया जाता है। 12-15 साल में लड़कियों का मासिक धर्म शुरू हो जाता है और 15 पूरा होने से पहले उनके साथ शारीरिक संबंध बनाना शुरू कर दिया जाता है।जब ये देवदासियां तीस की उम्र की हो जाती हैं, तो इन्हें ‘काम’ के लायक नहीं समझा जाता। फिर उनके पास शरीर को बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता। फिर उन्हें सड़क और हाइवे पर चलने वाले ड्राइवरों तक से संबंध बनाकर जीवन काटना पड़ता है। आज़ादी के बाद ये प्रथा बंद हो चुकी है ऐसा आमलोगों का मानना था लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2013 में बताया था कि अभी भी देश में लगभग 4,50,000 देवदासियां हैं। अब कानूनी रूप से भले ही इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया हो, लेकिन दक्षिण भारत के तमाम मंदिरों में आज भी ऐसा हो रहा है और एक वक्त के बाद उन्हें गुजारा करने के लिए देह व्यापर करना पड़ रहा है।
नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने देवदासी प्रथा पर अध्ययन किया।NLSIU के अध्ययन से पता चलता है कि कमजोरऔर ग्रामीण क्षेत्र की अशिक्षित व छोटी लड़कियां इस प्रथा का ज्यादा शिकार होती है। शोधकर्ताओं के अनुसार सामाजिक और आर्थिक रूप से तंग आये माता – पिता अपनी बेटी का विवाह करा देते है उनसे देह व्यापार कराया जाता है व उनका शारीरिक शोषण किया जाता है।
इस प्रथा को अभी भी बढ़ावा मिल रहा है। जिनमे ज्यादातर लोग काफी पिछड़े समाज से होते है या तो उनकी खराब आर्थिक स्थिति होती है । पुरानी मानसिकता उनसे ऐसा करवाती है। उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी आम जरूरतें भी नहीं मिल पातीं। उन्हें शिक्षित कर ,उनकी जरूरतें पूरी कर देवदासी प्रथा के बंद होने की व सुधार की कल्पना की जा सकती है।